राजनीतिक सुधार

नया वर्ष तो खास तौर पर उम्मीदों की सौगात लिए हुए आता है। इस नए वर्ष से उम्मीदें इसलिए अधिक हैं, क्योंकि बीते वर्ष ने आशा से अधिक निराशा का संचार किया था ।ध्यान रहे कि बीते वर्ष का आगाज एक तरह से गमगीन माहौल में हुआ था, क्योंकि दिल्ली में सामूहिक दुष्कर्म की घटना का शिकार युवती की मौत ने देश भर में गम और गुस्से की लहर तारी कर दी थी। यह शुभ संकेत है कि जो कालखंड बीत गया उसकी तुलना में आने वाले कालखंड को लेकर उम्मीदें अधिक हैं। इसका एक बड़ा कारण चंद माह बाद होने वाले आम चुनाव हैं, जो बदलाव का एक बड़ा अवसर उपलब्ध करा रहे हैं। खास बात यह है कि बदलाव की यह कुंजी आम जनता के हाथ में है। आम चुनाव के रूप में आम जनता को अपने भाग्य विधाता चुनने का जो अवसर मिलने जा रहा है वह परिवर्तन की आधारशिला रखने वाला साबित हो सकता है, लेकिन वास्तविक परिवर्तन तब आएगा जब भारतीय राजनीति के तौर-तरीके बदलेंगे।
देश, समाज और खुद राजनीतिक दलों के हित में यही है कि वे बदलाव की तेज होती बयार को महसूस करें और खुद में बदलाव लाएं। यह ठीक नहीं कि किस्म-किस्म के सुधार तो हो रहे हैं, लेकिन राजनीतिक सुधार ठंडे बस्ते में पड़े हुए हैं।इस संदर्भ में बातें तो बहुत हो रही हैं, लेकिन यह किसी से छिपा नहीं कि राजनीतिक सुधार हमारे नीति-नियंताओं की प्राथमिकता सूची से बाहर नजर आ रहे हैं।राजनीति की अपनी सीमाएं हैं और यह किसी से छिपा नहीं कि कई बार खुद राजनेताओं को दिशा दिखाने की आवश्यकता पड़ जाती है। यदि समाज सजग, संवेदनशील और अपनी समस्याओं के समाधान के लिए तत्पर हो तो एक समरस और समृद्ध भारत की तस्वीर में कहीं अधिक आसानी से खुशनुमा रंग भरे जा सकते हैं|

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